प्यार की अभिव्यक्ति,
महिला शक्ति में विद्यमान।
पुरुष हो या कोई स्त्री,
यह होती एक समान।
एक पिता कहता हैं
बेटी से,
काश तू मेरा बेटा होती।
पर,
कोई पुरुष
ये नहीं कहता ;
काश मैं औरत होती।
कल्पना उस औरत की,
करता कविता कवि की।
शुबह से लेकर शाम,
काम जिनकी पहचान।
विश्राम की बेला में भी,
कहाँ है उनकी पहचान।
स्त्री की चरित्र है सुंदर,
समझ सका ना मानव-ईश्वर।
मां-बहन-पत्नी-बेटी,
कहीं पर है वो प्रेयसी।
रुप अनेकों एक पहचान,
अभिव्यक्ति का नया नाम।
यह सम्मान
पुरुष क्यों नहीं पाते,
जो रोज नये
कारनामे करते।
कवि कल्पना कर सकता है,
पुरुष ना स्त्री बन सकता है।
बस ;
सम्मान बनाये रख,
साहस और पीड़ा को समझ।
पुरुष की पुरुषत्व में,
छुपा औरत का देख प्रेम।
कल्पना छोड़
हकीकत पहचान,
पुरुष में ही स्त्री विद्यमान।।
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- घनश्यामदासवैष्णव बैरागी
भिलाई ( छत्तीसगढ़ )
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